पंकचारी से हम उस प्रकार के पक्षियों का अर्थ लेते हैं जो नदियों, जलाशयों के तटीय जलखंडों के उथले जल में पैरों से चलकर अपना शिकार ढूँढ़ते हैं। नये शब्द गढ़कर इस विशेष प्रकार के पक्षियों का द्योतन करने के लिए हम विवश है। इस वर्ग के पक्षियों की हम कुछ गुणों के कारण गिनती तो करा लेते हैं, परन्तु उनको सदा जलखंड के निकट ही पाया जाना आवश्यक नहीं। सच बात तो यह है कि हम पंकचारी या जलपंकचारी वर्ग में गिनने वाले पक्षियों को केवल घोर जंगलों को छोड़ कर अन्य सभी स्थलों में पा सकते हैं। कौए और चीलों के पश्चात् पक्षियों में इन्हीं की सर्वाधिक संख्या पायी जाती है। वे बागों, ग्रामों, मैदानों आदि में भी पाये जाते हैं। शिकारियों के लिए जलपंकचारी पक्षी अधिक प्रिय होते हैं किन्तु कुछ स्थानीय पक्षियों को छोड़कर इन जलपंकचारी पक्षियों की अनेक जातियों से अपरिचित ही रहते हैं। अब इनकी पहचान तथा वर्णन मनोरंजक विषय हो सकता है।
वृक्षशायी जलपंकचारी | shorebirds (waders) |
पंकचारी या जलपंकचारी पक्षियों के समान ही गुण रखने वाले अनेक पक्षी जलखण्डों के निकट नहीं पाये जाते, किन्तु कुछ समानताओं के कारण उनकी चर्चा जलखंडो (water bodies) के निकट रहने वाले पक्षियों के साथ ही करनी पड़ती है। पहली बात हम यह देख सकते हैं कि कहीं छोटा-मोटा नाला या उथला पानी पार करना हो तो हम पैरों के कपड़े समेट कर ऊपर कस लेते हैं, इसी प्रकार जल पंकचारी पक्षियों को भी हम अपने पैर अधिकांशतः पतत्रों ( परों) से शून्य, नम रूप का ही पा सकते हैं। उथले पानी में चल सकने के लिए उनके पैर लम्बोतरे भी होते हैं। अतएव ऐसे पक्षी दीर्घचरण नाम भी पा सकते हैं। अपवाद स्वरूप चहा: wood sniper ( पंककीर ) तथा बगुले ( वक: heron) आदि कुछ पक्षी ऐसे अवश्य होते हैं जिनके पैर पतत्रशून्य या नंगे नहीं होते किन्तु इन पक्षियों की पहचान में सन्देह नहीं हो सकता। अतएव हमें जल पंकचारी पक्षियों की रूपरेखा उनकी पहचान करा सकती है।
जिन जलपंकचारी पक्षियों को पानी से अधिक मतलब रहता है, वे सभी पानी में तैर सकने की सामर्थ्य रखते हैं। उनमें से कुछ के पैर की उँगलियाँ झिल्ली (अंगुलिजाल ) से आबद्ध होती है। कुश्या चहा ( कषीका: Pied avocet) तथा हंसावर (flamingo) ( वक हंस या वलाक) पक्षी इस तरह के ही अपवाद हैं किन्तु इनके भी पैर इतने अधिक लम्बे होते है कि केवल झिलीबद्ध उँगलियों ( अंगुलिजाल ) के कारण इनको बत्तख होने का सन्देह नहीं हो सकता। केवल इनके पैरों की झिल्लीबद्ध उँगलियों के कारण बत्तख से ही समानरूपता की आशंका हो सकती है। इसके विपरीत स्वभावतः तैराक जल पंकचारी पक्षियों में कोई भी अन्य पक्षी बत्तख ( हंसक: duck) की भाँति अंगुलिजाल युक्त पैर नहीं रखता।
दीर्घचरण तथा नग्नपाद होने तथा साथ ही लम्बे चंचु रखने के अतिरिक्त अन्य कोई भी ऐसा समान गुण या लक्षण नहीं पाया जाता जो सभी जल पंकचारी पक्षियों में होता हो। यथार्थतः उपर्युक्त कतिपय बाह्य रूपरेखा को छोड़कर जलपंकचारी पक्षियों के अनेक विभिन्न वंश होते हैं। स्थूल रूप से उनके दो विभाग किये जा सकते हैं। इन दोनों विभागों के पक्षियों में केवल दीर्घचरण रूप के अतिरिक्त स्वभाव तथा गुण में कोई भी समानता नहीं पाई जाती। उनके शरीर की रचना में भी अन्तर होता है।
सारस (crane), बगुले ( वक), सफेद बुज्जा, मुंडा ( श्वेत ) कढ़ाकुल ( कृष्णआटी ) तथा दाबिल या चमचबाज (Eurasian spoombill) ( दर्वी मुख) आदि पक्षियों को एक विभाग या वर्ग का मान सकते हैं जो अपने नवजात शिशुओं को जीवन यापन के लिए शिक्षण देने की आवश्यकता अनुभव करते हैं। उनकी सीख के बिना नया जन्म धारण किये, शिशु पक्षी संसार क्षेत्र में अपने बूते पर कूदने तथा स्वयं आहार प्राप्त करना प्रारम्भ करने का साहस नहीं कर सकते। जन्म के समय वे असहाय ही होते हैं। उनका पालन-पोषण घोंसलों में होता है जो वृक्षों के ऊपर बना होता है। उनको माता-पिता द्वारा बाहर से वहाँ ही आहार प्राप्त होता रहता है। इस विभाग के पछी मांसभक्षी (carnivorous) ही होते हैं। किसी भी छोटे जीव को पकड़ सकने पर ये अपना आहार बना सकते हैं। ऐसे पक्षी रात को वृक्षों पर बसेरा लेते हैं अतएव वृक्षों की डालियों पर बैठ सकने योग्य ही इनके पैरों की उँगलियाँ बनी होती है। अतएव इनको वृक्षों पर बसेरा लेने तथा घोसला बना कर रहने के कारण ही वृक्षशायी या (aboreal) वृक्षगृही पक्षी कह सकते हैं। डालों को पकड़ सकने में समर्थ बनाने के लिए इनके पैर की पिछली अँगुली यथेष्ट विकसित होती है। इस अंग का आकार भी बड़ा होता है।
वृक्षशायी जलपंकचारी पक्षियों के अतिरिक्त अन्य सभी जल पंकचारी पक्षी भूशायी या भूगृही होते हैं। उनके बच्चे अण्डे से निकलते ही चपल तथा सामर्थ्यवान होते हैं। वे अपने माता-पिता के पीछे स्वयं चल फिरकर आहार ढूँढ़ना प्रारम्भ कर देते हैं। छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े तथा कुछ वानस्पतिक पदार्थ भी ये भोजन की सामग्री बनाते हैं। ये पक्षी भूमि पर ही अपने घोंसले बनाते हैं। वृक्षों पर इन्हें बैठने का अवसर नहीं आता। इस स्वभाव का यह परिणाम होता है कि पैर की पिछली उँगली छोटी ही रह जाती है तथा अनुपयोगी ही होती है। वह प्रायः लुप्त भी हो जाती है गाय, बैल आदि के पैर में पीछे के भाग में भूमि से कुछ ऊपर निरर्थक उँगलियों के चिन्ह मात्र की भाँति होती है। ऐसे वर्ग के पक्षियों की संख्या तो अधिक नहीं होती, परन्तु जाति प्रजाति या वंशों के भेद-प्रभेद अवश्य बहुत अधिक होते हैं। इन स्वावलम्बी शिशुओं की प्रथा का संचालन करने वाले पक्षियों में निम्न पक्षियों को गिनती कर सकते हैं:–
टिटहरी (टिट्टिभ), चहा ( पंक कीर), कुक्कुटी, सारस, महा सारंग, जलकपोत तथा जालांगुलिक, हंसावर ( वक हंस) आदि। इनमें हंसावर की गिनती शरीर रचना की दृष्टि से वृक्षग्रही पक्षियों में ही करना अधिक उचित हो सकता है किन्तु उधर जल-पक्षियों में बत्तख ( हंसक ) से भी उनका कुछ रूप मिलता है इसलिए वक हंस ( हंसावर ) को एक विचित्र प्रकार का पक्षी ही समझना चाहिए । स्वभाव तथा पैरों की पिछली उँगली की क्षीण रूपरेखा के कारण उसे भूशाली पक्षीवर्ग में ही रखा गया है। वृक्षगृही जलपंकचारी में कठोर चंचुओं के पक्षी बारहों मास हमारे देश में ही रहने वाले होते हैं, अतएव उनकी गिनती बारहमासी पक्षियों में करना चाहिए। वे कहीं से प्रवास कर शरद ऋतु की अल्प-अवधि के लिए ही नहीं आते; किन्तु अपनी सुविधा के लिए वे ऋतु-परिवर्तन के कारण जल के निकट होने के लिए थोड़ा बहुत स्थान-परिवर्तन अवश्य कर लेते हैं ।
अपने आकार तथा विचित्र रंगों के कारण भी अन्य पंकचारी पक्षियों से अधिक आकर्षक होते हैं। इनमें कुछ की तो स्पष्ट ही पहचान है।
दाबिल या चमचबाज ( दर्वी मुख) को तो अपना चंचु चमच ( दर्वी ) की तरह रखने से ही यह नाम धारण करते देखा जाता है ।
आटी पक्षी ( सफेद बुज्जा, कड़ाकुल आदि) लम्बी तथा पतली चोंच वाले होते हैं जो धीरे-धीरे पूर्ण आकार में मुड़ी-सी होती है।
वक तथा महाबकों की चोंच लम्बी होती है किन्तु वह बहुत दृढ़ नहीं होती। चित्रित सारस में एक विशेषता होती है। उसकी चोंच सिरे की ओर मुड़ी होती है।
वकों की नासिका चोंच में लगभग सिरे तक जाने वाले गड्ढे के अन्त में स्थित होती है। उनके पैर में अगली उँगलियों की दो बाहरी उँगलियों में ही आधार स्थल में झिल्ली का पर्दा (जाल) लगा होता है।
महाबक की चोंच में कोई लम्बा गड्ढा नहीं होता।
आटी तथा दर्वीमुख (Ibis and spoonbill)
बुज्जा ( आटी ) पक्षी का वंश महाबकों की अपेक्षा कुछ भारी शरीर का होता है। वे बहुत लम्बोतरे पैरों के नहीं होते। उनका चंचु घुटने से नीचे के अधोपाद की लम्बाई से अधिक बड़ा होता है। यह प्रारंभ से छोर तक के भाग में हँसिया की तरह मुड़ा होता है। बुज्जा (आटी) पक्षियों के चंचु की यह विशेषता उन्हें अन्य सभी तटचारी पक्षियों से विभिन्न प्रकट कर देती है। केवल बड़ा गुलिंदा (नक्त कुररी) (curlew) पक्षी ही अपवाद है। इस कारण इन दोनों की पहचान में कुछ धोखा होने की सम्भावना है, परन्तु बड़ा गुलिंदा ( नक्त कुररी) के पैर में पिछली उँगली छोटो तथा निरर्थक होती है तथा पँख पर रेखाएँ बनी होती है। इसके विपक्ष बुज्जा (आटी) पक्षियों के पैर की पिछली उंगली विकसित होता है। भारतीय बुज्जा (आटी) पक्षियों के का रंग सदा शरीर के रंग के अनुरूप ही साधारण होता है। सन्तानोत्पादन विधि में भी अन्तर होता है। बुज्जा (आटी) तो वृक्षग्रही है। जन्मधारण करने पर उसके बच्चे असहाय ही होते हैं। किन्तु बड़ा गुलिंदा (नक्त कुररी) पृथ्वी पर ही घोंसला बनाकर अंडे देता है। उसके बच्चे उत्पन्न होते ही दौड़ लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। यथार्थ में नक्त कुररी को चुपका या चोबहा ( जलरंक) पक्षी का ही परिवर्धित रूप कहा जा सकता है।
कृष्ण आटी (काला बुज्जा या कडांकुल) |
चमचबाज बुज्जा या दर्वीमुख आटी (Eurasian spoonbill) |
बुज्जा (आटी) को मुर्गी के आकार का पक्षी समझना चाहिए। वह बड़ा चपल होता है। इसका भोजन घोंघे, कीड़े-मकोड़े आदि है किन्तु यह बंधन में पड़ने पर कुछ वानस्पतिक पदार्थ भी ग्रहण करता है। दाने भी चुग लेता है। इसे पालना बड़ा ही सुगम होता है तथा पालतू पक्षी अंडे भी दे सकता है। अपनी लम्बी चोंच का यह दुरुपयोग कर अन्य पक्षियों को भय न दिखाकर उनमें मिलकर ही रहता है। इनको शिकारी भोजन भी बनाते हैं। यह संसार भर के उष्ण भूखंडों में पाया जाता है। वृक्षों के घोसलों में बुज्जा को भूखंड में रहते पाया जाता है। बच्चा पैदा होने पर उसकी चोंच में अपनी चोंच डालकर नर और मादा उसे आहार चुगाते हैं।
जब बुज्जा (आटी) के बच्चे कुछ बड़े हो जाते हैं तो उनकी चोंच लम्बी हो जाती है। वे अपने माता-पिता के पीछे-पीछे पंख फड़फड़ा कर दौड़ते हैं तथा उनके गले में अपनी चोंच डालकर आहार निकाल लेते है। उनको अपने पैरों पर दृढ़तापूर्वक चल सकने का विश्वास नहीं होता। अल्पवयस्क महाबको की तरह आहार ढूँढ़ने में उन्हें शीघ्र ही संलग्न नहीं पाया जाता। उनके पंखों का रंग वयस्क बुज्जा की तरह नहीं होता। किन्तु बच्चों में एक-दूसरे का रंग एक समान ही होता है। नर और मादा के भेद से शिशु आटी में आकार का तनिक भेद हो सकता है। अण्डे सादे या चित्तीदार होते हैं।
महाबक की तरह बुज्जा (आटी) भी गर्दन आगे की ओर सीधी कर उड़ते हैं, परन्तु पंखों के फड़फड़ाने की गति तीव्र होती है। बीच में पंख स्थिर रख कर भी चील की तरह उड़ान भर लेते हैं अतएव उड़ान में इनकी पहचान हो सकती है। ये वृक्षों पर अधिक बैठते है। इनमें स्वर यंत्र भी होता है। इस कारण कभी-कभी यथेष्ट शब्द भी उत्पन्न करते है।
बुज्जा (आटी) वंश बड़ा कहा जा सकता है। किन्तु भारत में केवल चार जातियाँ ही पाई जाती है। अतएव उनकी पहचान सुगम ही है। निम्न चार जातियाँ हैं:-
( 1 ) श्वेत आटी (सफेद बुज्जा या मुंडा)
( 2 ) कृष्ण आटी (काला बुज्जा या कडांकुल)
( 3 ) कृष्ण आटी (ब्रह्म देशीय)
( 4 ) पत्राटी (छोटा बुजा या कबरी)
श्वेत आटी (indian white ibis) को तो रंग से ही तुरन्त पहचाना जा सकता है। कृष्ण (black-headed ibis) के दोनों भेदों में चोंच से भी अधिक लम्बी पूँछ होती है।
पत्राटी (glossy ibis) गहरे रंग का पक्षी है। परन्तु उसकी पूँछ चोंच से कम लम्बी होती है।
चमचबाज (दर्वी मुख) का वंश पृथक है परन्तु उसे आटी वंश से मिलता-जुलता कह सकते हैं। बहुत बड़ा अन्तर नहीं होता। दर्वी मुख पक्षियों की चोंच सिरे पर चौड़ी तथा चपटी होती है। इस वंश के पक्षियों की थोड़ी ही जातियाँ है। उनमें एक जाति ही भारत में पा जाती है। कोई महत्वपूर्ण भेद न होने से कितने लोग इसे भी आटी वंश का समझते हैं और दर्वीमुख आटी कहते हैं।
चमचबाज बुज्जा या दर्वीमुख आटी (Eurasian spoonbill) नाम सुनकर हैरानी हो सकती है। परन्तु चमचबाज ( दर्वीमुख) और बुज्जा (आटी) पक्षियों को इतना निकट का देखा जाता है कि इनमें एक जाति के नर तथा दूसरी जाति की मादा का जोड़ा बनकर सन्तान उत्पन्न हो सकती है। जर्मनी के बर्लिन स्थित जंतुशाला में एक ऐसी दोगली सन्तान विद्यमान थी जिसका धड़ तो दर्वीमुख पक्षी के समान था और चोंच आटी पक्षी के सदृश थी, केवल सिरे पर तनिक-सी चपटी बन गई थी। यह किस प्रकार सम्भव हो सका, यह विस्मय की ही बात है।
महाबक (Stork)
महाबक पक्षी वृहदाकार पक्षियों के एक छोटे परिवार हैं जो संसार भर के उष्ण भूखंडों में पाये जा सकते हैं। कुछ जातियाँ ग्रीष्म ऋतु में सन्तानोत्पादन के लिए शीतोष्ण कटिबन्ध के भूभागों में प्रवास कर जाती है। महाबको को हम लम्बे आकार तथा प्रमुख रंगों का होने के कारण सहज पहचान सकते हैं। उनको मन्दगति किन्तु शक्तिशाली उड़ान में भली-भाँति देखा जा सकता है। अपने पंखों को अनवरत फड़फड़ा कर वे उड़ते हैं, परन्तु पंखों को स्थिर रखकर चील की तरह मँडराने का कृत्य भी वे कर सकते हैं। सभी पंकचारी पक्षी उड़ान के समय अपने पैरों को पीछे मोड़कर आड़ा बना लिये होते हैं। कहा जाता है कि नाव के पतवार को भाँति महाबक भी अपने पैर पीछे की तऱफ होने के कारण अपनी उड़ान को दिशा नियंत्रित करने में उपयुक्त करते है। इसका कारण यह बताया जाता है कि इनकी दुम बहुत छोटी होती है, इसीलिए पैरों को पीछे फैलाकर पतवार के समान काम लेने की आवश्यकता होती है। परन्तु एक तो यह बात स्पष्ट देखी जा सकती है कि कबूतर, बाज आदि बहुत से बड़ी पूंछो वाले पक्षी भी उड़ान के समय अपने पैर पीछे फेंके दिखाई पड़ते है। दूसरी बात यह है कि इतने कृशकाय दो दंडों की तरह के इन पैरों से सारस अपनी उड़ान के गति-नियंत्रण में काम ही क्या ले सकता है !
कृष्णग्रीव महाबक (लोह सारंग) |
महाबकों के पैर ही लम्बे नहीं होते बल्कि गर्दन और चोंच भी उस प्रकार लम्बी होती है। उनके पंख भी लम्बे चौड़े होते हैं। पंकचारी पक्षियों में पिछली उँगलियाँ लम्बी होती है जिससे डाली पकड़ सकने में सुविधा हो, परन्तु महाबक के पैरों की पिछली उँगलियाँ अन्य वृक्षगृही पंकचारी पक्षियों के समान लम्बी नहीं होतीं। फिर भी भूमि पर उतरने के समय सिरों द्वारा भूमि स्पर्श करने योग्य बड़ी अवश्य होती हैं। सारस के चंचु बड़े पुष्ट और शक्तिशाली होते हैं। वे सभी प्रकार के छोटे जन्तुओं को उदरस्थ कर सकते हैं। मेढ़क, मछलियाँ, साँप, टिड्डियाँ तथा चूहे उनके चंचुओं की पकड़ में आते ही आहार बन जाते हैं। कुछ महाबक शवभोजी भी होते हैं। महाबक पक्षियों को सीधा तथा उपयोगी पक्षी कहा जा सकता है। उनको लोग पसन्द कर पालते भी हैं। कुछ महाबकों को मांसाहारी खाते भी हैं।
नर और मादा महाबक का रंग समान ही होता है परन्तु मादा आकार में कुछ छोटी होती है। बच्चे वृहद बक भी समान रंग के ही होते हैं किन्तु उनके परों (पक्षपत्र या पतत्र) का रंग विशेष रूप का हो सकता है। वयस्क सारसों का रंग काला, श्वेत तथा धूसर ( खाकी) होता है।
भारती महाबक वृक्षों पर छोटी-छोटी लकड़ियों द्वारा बड़ा घोंसला बनाते हैं। जो सारस ग्रीष्मकाल में प्रवास कर जाते हैं वे शीतोष्ण कटिबंधों में कहीं पुराने भवनों में ही स्थान पा जाने पर अपने घोंसले बनाते हैं। सभी सारसों के अण्डे बिल्कुल श्वेत रंग के होते हैं। उनकी संख्या न्यून ही होती है।
महाबकों को सहचारी कहा जा सकता है। वे झुंडों में ही रहने का स्वभाव रखते हैं। जिन पक्षियों को वे निगल सकने में अपना गला पतला पाते हैं उन सभी पक्षियों के प्रति वे निरापद ही होते हैं तथा उनके साथ निवास कर सकते हैं। इनके गले में स्वरयंत्र का अभाव होता है, अतएव इनको मूक पक्षी ही कहेंगे, परन्तु किसी प्रकार अपने चंचुओं को टकराकर मूक और बधिरों की भाँति कोई ध्वन्यात्मक भाषा निकाल सकने में समर्थ पाया जाता है। ये उन ध्वनियों से ही कुछ संकेत अन्य सारसों के प्रति प्रकट कर सकते हैं इतनी अर्द्धमूक ध्वनि से ही उनका काम निकल जाता है। किन्तु हरगिल्ल (वृहद बक) पक्षी एक भारी अपवाद माना जा सकता है। उसके शरीर की रचना इस वंश के पक्षियों के अनुरूप होने पर भी उसे सन्तानोत्पादन ऋतु में रंभाने सा शब्द उत्पन्न करते देखा जाता है।
भारतीय महाबक की आठ जातियाँ पाई जाती हैं :―
(1) हरगिल्ल या गरुड (वृहद बक)
(2) छोटा गरुड (श्वेताक्ष वृहद बक)
(3) जंघील या राम झंकार (चित्रित महाबक)
(4) मानिकजार या लगलग (शितिकंठ महाबक)
(5) घोंघिल (शिथिल बक)
(6) लगलग (राजबक)
(7) सुरमई (कृष्ण महाबक)
(8) लोह सारंग (कृष्णग्रीव महाबक)
वृहद बक (हरगिल्ल) तथा श्वेताक्ष वृहद बकों (छोटे गरुड़) की स्पष्ट पहचान यह है कि उनका आकार बड़ा तो होता ही है, परन्तु उनकी गर्दन नंगी (परों से शून्य) होती है।
अन्य सभी महाबकों की गर्दन पर पतत्र निकले होते हैं। वह नग्न नहीं होती। उन सब में कृष्णग्रीव महाबक (लोह सारंग) (black nacked stork) सबसे बड़े आकार का होता है। उसकी लम्बाई चंचु के सिरे से पूँछ के छोर तक चार फीट होती है। अन्य सभी महाबक, केवल नग्न कण्ठ के उपर्युक्त महाबकों को छोड़कर कृष्णग्रीव महाबक की अपेक्षा छोटे होते हैं।
चित्रित महाबक (राम झंकार) (painted stork) की चोंच सिरे की ओर थोड़ी सी मुड़ी होती है किन्तु अन्य सभी के चंचु सीधे ही होते हैं।
शितिकण्ठ महाबक (मानिकजार) (wooly nacked stork) की पूँछ गहरे रंग की तथा विचित्र रुप के दो फाँकोयुक्त होती है। परन्तु अन्य सभी महाबकों की पूँछ एक फाँक की साधारण रूप की होती है।
शिथिल बक (घोंघिल) की क्षुद्राकार तथा धूसर (खाकी) या धूसर श्वेत मिश्रित रंग से पहचाना जा सकता है। चंचु की लम्बाई केवल छः इंच ही होती है किन्तु अन्य महाबकों के चंचु आठ इंच या इससे भी अधिक लम्बे होते हैं। केवल शितिकंठ ( मानिकजार) ही अपवाद है जिसका रंग गहरा होता है।
राजबक (लगलग) तथा कृष्ण महाबक (सुरमई) (black stork) की गर्दन, पूँछ या चोंचों में कोई विशेषता नहीं होती। उनको मध्य आकार के महाबक समझना चाहिये। उनकी लम्बाई चोंच से सिरे से पूँछ के छोर तक डेढ़ गज होती है तथा चोंच की लम्बाई आठ इंच होती है। इस तरह उनकी पहचान के लिए कोई विशेष रंग-रूप न होने पर भी हम उनकी पहचान कर सकते हैं। ये मध्यवर्गीय महाबक ही यूरोपीय देशों में पाये जाते हैं।
वक ( बगुले ) (Heron)
बगुलों का वंश वृक्षगृही पंकचारी पक्षियों में सबसे बड़ा है। इनको छोटे या बड़े आकार का पाया जाता है। छोटी जाति का बगुला मैना के बराबर होगा। बड़ी से बड़ी जाति का वक महाबक के बराबर हो सकता है। किन्तु वंश के बड़े होने तथा आकार में छोटे-बड़े अनेक भेद होने पर भी बगुलों का पहचानना सरल है। जब ये उड़ते है तो इनकी गर्दन दुबककर धड़ से सट गई होती है। लम्बी गर्दन के सभी पक्षियों की अपेक्षा यह उनकी विशेषता होती है। लम्बग्रीव पक्षियों में केवल वृहद वक तथा श्वेताक्ष वृहद वक ही अपवाद है। उड़ान के समय उनकी गर्दन और चोंच भी आगे की ओर सीधी तनी नहीं रहती है। किन्तु वृहद वक ( हरगिल्ल या गरुड) तथा श्वेताक्ष वृहद वक (छोटा गरुड़) को अन्य लक्षणों से सष्ट पहचान लिया जा सकता है। उनके सिर बिल्कुल नग्न होते हैं तथा चोंच इतनी स्थूल होती है कि बगुले का भ्रम हो ही नहीं सकता। एक बात और भी होती है। ये महाबक उड़ान के समय अपनी चोंच नीचे की ओर लटकाये रहते हैं, परन्तु बगुलों की चोंच सीधी ही रहती है। बड़े बगुले उड़ान के समय अनवरत रूप से पंख फड़फड़ाते ही रहते हैं। चील या गिद्ध की तरह पंखों को गतिहीन कर हवा में तैरते-से रहने का गुण उनमें नहीं होता। केवल नीचे उतरने के समय वे पंखों का फड़फड़ाना बन्द कर उन्हें फैलाये रख छतरी की भाँति उतरते हैं। उनके पंखों के छोर नीचे की ओर झुके ही रहते हैं, परन्तु महाबकों के पंख या तो चपटे फैले होते हैं या ऊपर की ओर सिरे मोड़े होते हैं।
साधारण वक |
बगुलों को उड़ान के समय पहचान सकने के लिए तो ये लक्षण है, परन्तु हाथ में लेने पर कुछ अन्य उल्लेखनीय बातें ज्ञात हो सकती हैं। उनकी चोंच महाबकों की तरह ही लम्बी तो होती है परन्तु उतनी स्थूल नहीं होती। वह सदा कुछ चपटी या कटारनुमा होती है। नाक के नीचे चोंच के छोर तक एक नाली-सी भी बनी होती है। बंगुलों के पैरों में भी विशेषता होती है। अनेक पक्षियों में जहाँ उँगलियों के आधार स्थल पर झिल्ली का छोटा बन्धन (अंगुलिजाल) होता है वहाँ बगुलों में यह केवल बाहरी उँगलियों में ही सीमित होता है, किन्तु महाबक तथा आटी पक्षियों में दो भीतरी उँगलियाँ भी झिल्ली से आबद्ध होती हैं।
पंकचारी पक्षियों में बगुलों में ही पैर की पिछली अंगुली यथेष्ट विकसित होती है। वह अगली अंगुलियों के समान ही नीचे भूमि पर स्थित हो सकती है। इस कारण वे डालों पर भली-भाँति बैठ सकते हैं। तथा डाल को उँगलियों से दोनों ओर से पकड़ कर अच्छी तरह संभले बैठे रह सकते हैं। मध्य चंगुल के निचले तल पर एक दाँतेदार कंघी-सी मढ़ी होती है। बुज्जा (आटी) और महाबक पक्षियों को इस अस्त्र से रहित ही पाया जाता है। महाबकों में इसके होने का कुछ आभास मिलता है, मानो वह खरोंचकर कुछ पाने का उद्योग करने की अभिलाषा रखता हो। बगुले के मुँह का चीरा बिल्कुल आँखों तक पहुँचता है। मुँह फैलाने पर वहाँ तक का भाग ऊपर और नीचे के दो जबड़ों के रूप में पृथक् हो जाता है। इसका पीला रंग उसे भयावह रूप प्रदान करता है। बगुलों के कलहप्रिय स्वभाव के लिए ऐसा रूप उचित मी है। एक परिवार रूप में उन्हें झगड़ालू पाकर भी सन्तानोत्पादन ऋतु में समाज-प्रिय पाया जा सकता है। वे इस ऋतु में वृक्षों पर समीप-समीप ही घोसले बनाये पड़े रहते हैं मानों झगड़ने में सुविधा होने के लिए उन्होंने अपने घोंसले अन्य पड़ोसियों के इतने निकट बनाया हो ।
बड़े बगुले वीर पक्षी कहे जा सकते हैं। आहत होने पर वे प्राण रहने तक संघर्ष करते हैं अतएव शिकारी को उनकी दयनीय दशा समझ कर निकट जाने से धोखा हो सकता है। घायल होने पर निहत्थे शिकारी पर बड़ा बगुला चोट कर देता है और अपने प्रहार का लक्ष्य शिकारी की आँख ही बनाता है। इसलिए हाथ में डंडा या छड़ी लिये बिना घायल बगुले के निकट पहुँचना भयानक हो सकता है ।
बगुलों का आहार मछली के अतिरिक्त केकड़े, मेंढक, कीट, अन्य छोटे जन्तु तथा छोटे पक्षी तक है। वकोव्यांन प्रसिद्ध बात ही है। अपने शिकार के पीछे भागे-भागे फिरने या शिकार की खोज में भटकने की अपेक्षा वे एक स्थान पर योगी सदृश्य ध्यानावस्थित सा होकर शिकार के अपने पास ही आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। जहाँ कहीं निकट शिकार दिखाई पड़ा कि ध्यानावस्थित रूप में दिखाई पड़ने वाले नेत्र भी चैतन्य रहकर उसे लक्ष्य भेद करने के लिए सनद्ध करते हैं। शिकार तुरन्त उनके मुँह में पहुँच जाता है। पुनः दूसरे शिकार की खोज में ध्यान रमा देते हैं।
इन पक्षियों का रूप निर्धारण अथवा वर्तमान भेदों से समन्वय करना कठिन कार्य ही है। किन्तु वर्तमान भेद प्रभेदों का कोई भी नामकरण रखकर विद्वान् प्राचीन साहित्य के नामों से उनका मेल कर हमें भविष्य में बता सकेंगे कि उन प्राचीन नामों से वर्तमान जातियों में से किनका बोध किया जाय। अतएव उपयुक्त नामों की केवल चर्चा कर हम बगुलों की वर्तमान जातियों का उल्लेख कर रहे हैं ।
संसार में वकों की बहुसंख्यक जातियाँ है। भारत में जितने भी बगुले पाये जाते हैं उनमें एक जाति ही यहाँ का बारहमासी पक्षी नहीं है जिसे ज्योत्सना वक (Bittern) कह सकते हैं। किन्तु सभी वकों का शरीर हल्का होने तथा पंख गोला विशालरूप का होने से लम्बी उड़ान की सामर्थ्य उनमें होती है। उनकी पूँछ सदा ही छोटी और गौण होती है। कुछ महाबको तथा आटी पक्षियों की भाँति उनका सिर गंजा नहीं होता। चोंच से नेत्रों तक एक रंगीन पट्टी निश्चित रूप से होती है। उनके पंख भी भव्य रूप से रंजित होते हैं। उनके कटिंप्रदेश तथा वक्ष स्थल में दोनों ओर धब्बे रूप में एक श्वेत चूर्णं पोटली होती है। उनसे चूर्णं निकाल कर अपनी चोचों से पंखों पर मर्दित करने की क्रिया पाई जाती है जिससे बगुलों के पंख, पालिश करने के समान चमकीले हो जाते हैं। इसी कारण तो अत्यन्त श्वेत चमकीली वस्तु के रंग की प्रशंसा कर लोग कह उठते हैं कि ‛वह इतनी श्वेत है मानो बगुले के पंख।’
बगुलों के नर-मादा समान रूप के ही होते हैं किन्तु शिशु वकों का रंग कुछ भिन्न होता है। वयस्क वकों में रंजित पंख कदाचित् दाम्पत्य आकर्षण के लिए पाये जाते हैं। बगुलों के शिशु के शरीर पर जो आवरण होता है वह रोएँ सदृश्य जान पड़ता है। उसे सिर पर कुछ लम्बा पाया जाता है | यह रूप अन्य सभी पंकचारी पक्षियों के शिशुओं से भिन्न-सा होता है। बच्चे गट-गट सी ध्वनि करते रहते हैं। बगुलों का स्वर यन्त्र युक्त होना तटचारी पक्षियों से भिन्नता ही है। इसके अण्डे चित्तियों से शून्य तथा मटमैले नीले, या श्वेत होते हैं। घोंसले लकड़ी, नरकुल आदि के बने होते हैं।
वक पक्षी अधिकांशत: उष्ण भूभाग के ही पक्षी हैं। इनकी लगभग इक्कीस जातियाँ हमारे देश में पाई जाती है। इस कारण इनकी या सभी जातियों को पहचानना कुछ कठिन प्रतीत हो सकता है, परन्तु रंग-रूप, आकार आदि के विचार से इनको तीन वर्गों में विभाजित माना जा सकता है।
पहला विभाग शुद्ध वकों का मान सकते हैं जो बड़े आकार के पक्षी होते हैं। उनके शरीर की लम्बाई एक गज से भी अधिक होती है । उनका रंग कभी भी पूर्णत: श्वेत धूसर ( खाकी ) नहीं होता और न पूर्णत: चितकबरा होता है।
बलाका या बगुली नाम से हम दूसरा विभाग व्यक्त कर सकते हैं। उनका रंग पूर्णतः श्वेत या धूसर अथवा चितकबरा होता है। श्वेत बड़ा बलाका एक गज लम्बा हो सकता है, परन्तु अन्य सभी बलाका इससे बहुत कम ही लम्बे होते हैं।
तीसरा विभाग ज्योत्सना वकों का है जो रात्रिचारी पक्षी होते हैं। इन सब की लम्बाई एक गज तक होती है। ज्योत्सना वकों को कभी भी पूर्णतः श्वेत या धूसर रगों का या चितकबरा नहीं पाया जा सकता। वे अनेक रगों के ही होते हैं। उनकी गर्दन पर परों की पूर्ण बाढ़ होती है। उनके पैर उतने लम्बोतरे नहीं होते। किन्तु कुछ वलाका इनके आकार की समता कर सकते हैं, इस कारण इनको रगों की विशेषता से ही पहचाना जा सकता है। इस वर्ग के साथ नक्त वक ( तार बगुला) की भी गिनती की जा सकती है।
साधारण वक लम्बोतरे परों के पंछी हैं। उनकी गर्दन घने परों से आच्छादित होती है, किन्तु सिर पर पतली शिखा तथा वक्षस्थल पर लटकते परों को पाया जाता है। नर और मादा समान रंग-रूप के होते हैं। शिशुओं का रूप कुछ भिन्न होता है। उनमें लम्बे पर नहीं उगे होते। ये छोटी जाति के बगुलों की तरह बहुसंख्यक नहीं होते। सबसे बड़े आकार की जाति तो अत्यल्प होती है। उन्हें अलभ्य पक्षी समझना चाहिए। वकों की बड़ी जातियों को चोंच से पूँछ तक साढ़े चार फुट लम्बा पाया जाता है। वकों के भेद निम्न प्रकार के होते हैं :― भीमकाय वक के सिर और गर्दन का रंग बादामी होता है। लम्बाई साढ़े चार फुट होती है।
धूमिल धूसर वक चार फीट तक लम्बा होता है। रंग धूसर होता है तथा कुछ श्वेत रंग के धब्बे भी पाये जाते हैं।
सितोदर दीर्घ वक उपर्युक्त दोनों के मध्य आकार का पंछी है। उदर का रंग श्वेत देखकर इसे पहचानना सुगम है।
अन्य प्रचलित वकों में अनेक को साढ़े तीन फुट तक लम्बा पाया जाता है।
साधारण वक का रंग धूसर ( खाकी ) होता है तथा आरक्त वक के रंग में बादामी का मिश्रण होता है ।
बलाका
बलाका पक्षी की आठ जातियाँ मानी जा सकती है। इनका विभेद कर सकना कठिन अवश्य है, परन्तु इनको चार उपवर्गों में बाँट सकते हैं।
शुद्ध या श्वेत बलाका:- इसमें तीन जातियाँ होती हैं। इनका रंग सदा ही श्वेत होता है। इनकी विशेषता शरीर का हल्का आकार तथा लम्बोतरे पैर तथा अंगुलियाँ है। चोंच, घुटने से लेकर अँगुलियों तक के पैर ( गुल्फ ) की लम्बाई से अधिक लम्बी नहीं हो सकती। घुटने से ऊपर से पैर ( उर्ध्वपाद ) की लम्बाई भीतरी अँगुली (चंगुल रहित) की लम्बाई से अधिक होती है।
गो बलाका की पहचान उसकी चोंच है जिसकी लम्बाई उसकी मध्य अंगुली के (चंगुलयुक्त) की लम्बाई के बराबर होती है। अन्य सभी बलाका पक्षियों में चोंच की लम्बाई, मध्य अँगुली की लम्बाई से अधिक होती हैं।
अन्धबक या अन्ध बलाका की दो जातियाँ होती है। वे चित्रित ( चितकबरे ) रंग की होती हैं, उनका शरीर अन्यों से पुष्ट होता है। उनकी चोंच चंगुयुक्त, मध्य अँगुली से अधिक लम्बी होती है।
ज्योत्स्ना बक तथा नक्तबक (Bitterns and kwak)
ज्योत्स्ना बकों में ही नक्तबक की गिनती की जा सकती है। इनको बक वंश में एक पृथक् स्थान ही देना चाहिये।
बकों की अपेक्षा इनका आकार छोटा किन्तु शरीर पुष्ट होता है। अधोपाद की लम्बाई से चोंच की लम्बाई विशेष अधिक होती है। उर्ध्वपाद छोटा तथा नग्न होता है। गर्दन बड़े लम्बे परों से ढकी होती है किन्तु गर्दन का पिछला भाग नग्न होता है किन्तु अपने परों को उस पर फैला कर उसका गंजापन वे ढक लेते हैं।
ज्योत्स्ना बक |
ज्योत्स्ना बकों का रंग बकों से सर्वथा भिन्न होता है। उनको कभी भी पूर्णत: धूसर श्वेत या चितकबरा नहीं पाया जा सकता। नर और मादा का रूप भी सदा एक समान नहीं होता शिशुओं का रूप तो निश्चय रूप से विभिन्न होता है। इस परिवार के पक्षियों को कभी भी बहुत बड़े आकार का नहीं देखा जा सकता। बड़े से बड़े ज्योत्स्ना बक की लम्बाई एक गज तक हो सकती है। एक भारी विशेषता यह भी है कि ज्योत्स्ना बक झुंडों या समाज में नहीं रहते । वे रात्रिचारी तथा प्रायः एकांकी रहने वाले पक्षी ही हैं। यों तो बक भी साथ रहने में एक दूसरे से कलह ही करते रहते हैं। बलाका भी अधिक समाजप्रिय नहीं होते। परन्तु ज्योत्स्ना बक तो समाजप्रिय वृत्ति से सर्वथा शून्य होते हैं । यदि ज्योत्स्ना बकों को बरबस साथ कर दिया जाय तो वे परसर लड़ कर कर मर जायेंगे।
इन पक्षियों के आठ भेद भारत में पाये जाते हैं। उनको निम्न विभागों में कर सकते हैं:―
साधारण ज्योत्स्ना बक बड़े आकार के होते हैं। उनकी लम्बाई दो फुट तक होती है। अन्य कोई भी ज्योत्स्ना बक दो फुट तक लम्बा नहीं होता।
लघु ज्योत्स्ना बक की तीन जातियाँ होती है। वे बहुत छोटे पक्षी है। पन्द्रह इंच से भी कम लम्बे होते हैं।
लघु चंचु नक्त बक की चोंच अधोपाद ( गुल्फ) से बहुत कम लम्बी होती है। अन्य सब की चोंच उस से लम्बी होती है। साधारण नक्त बक की चोंच मोटी तथा आँख लाल होती है।
काले तथा हरे ज्योत्स्ना बकों में काला ज्योत्स्ना बक लगभग दो फीट तथा हरा अठारह इंच लम्बा होता है। काले की दुम में दस पर होते हैं, हरे में उससे भी दो अधिक परों की दुम होती है।
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